प्रश्न 1. भारत में मुख्यतः कितने प्रकार की कृषि होती है ?
उत्तर – भारत में मुख्यतः चार प्रकार की कृषि होती हैं। उनके नाम हैं : (i) भदई फसलें, (ii) अगहनी फसलें, (iii) रबी फसलें और (iv) गरमा फसलें ।
प्रश्न 2. खरीफ फसल और रबी फसल में क्या अंतर है ?
उत्तर– खरीफ फसल जून-जुलाई में बोई जाती है तथा अगस्त-सितम्बर में काट ली जाती हैं। प्रमुख खरीफ फसलें हैं धान, मक्का, ज्वार, बाजरा, उड़द, सनई (जूट), मडुआ, साँवा। इसके विपरीत रबी फसलों की बुआई अक्टूबर-नवम्बर में की जाती है और इन्हें मार्च-अप्रैल तक काट लिया जाता है। रबी में गेहूँ को प्रमुख माना जाता है। इसके अलावा जौ, चना, मटर, सरसों, तीसी, मसूर, खेसारी, अरहर आदि आते हैं ।
प्रश्न 3. पादप-संकरण क्या है ?
उत्तर- दो किस्म के पादपों को मिलाकर एक नया उच्च किस्म का पादप या उसके बीजों के विकास को पादप-संकरण कहते हैं । खाद्यान्न से लेकर फल-फूलों तक के बीजों का संस्करण कराकर उनकी उच्च कोटियाँ तैयार की गई हैं ।
प्रश्न 4. मिश्रित कृषि क्या है ?
उत्तर – मिश्रित कृषि में मतांतर है । कुछ कृषि वैज्ञानिकों का कहना है कि किसी किसान के द्वारा अन्नोत्पादन के साथ दुग्धोत्पादन का काम साथ-साथ की जानेवाली प्रक्रिया को मिश्रित कृषि कहते हैं। लेकिन इधर एक नई मान्यता आई है। वह है कि एक ही खेत में एक साथ दो या दो से अधिक प्रकार की फसलों को उपजाये जाने की प्रक्रिया को मिश्रित कृषि कहते हैं। हमारी पाठ्यपुस्तक भी यही कहती है।
प्रश्न 5. हरित क्रांति से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर— लाल बहादुर शास्त्री के प्रधान मंत्रीत्व काल में जब अमेरिका ने गेहूँ भेजने से इंकार कर दिया तो शास्त्रीजी ने भारतीय कृषि वैज्ञानिकों तथा किसानों को उपज बढ़ाने का आह्वान किए । कृषि वैज्ञानिकों ने उच्च कोटि के बीजों का आविष्कार किया। किसानों ने उन उच्च कोटि के बीजों के साथ रासायनिक उर्वरकों तथा कीटनाशी दवाओं का उपयोगकर वैज्ञानिक ढंग से कृषि की और अकस्मात देश खाद्यान्नों में आत्मनिर्भर हो गया। इस क्रांतिकारी कार्य को 'हरित क्रांति' की संज्ञा दी गई ।
प्रश्न 6. गहन कृषि से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर – गहन कृषि से तात्पर्य वैसी कृषि से है, जिसमें अन्नोत्पादक निर्यात के लिए किया जाता है। ऐसी कृषि में हर काम के लिए यंत्रों का व्यवहार किया जाता है। यंत्रों से ही खेतों की जोताई तथा बोआई की जाती है। सिंचाई के लिए खेतों में पाइपों का जाल बिछाया रहता है, जिनके माध्यम से छिड़काव विधि द्वारा सिंचाई की जाती है । फसलों की कटनी और दवनी भी मशीनों से ही होती है । उत्पादित अन्न अपने देश की आवश्यकता से बहुत अधिक होती है, जिसे निर्यात कर दिया जाता है।
प्रश्न 7. झूम खेती से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर – प्राचीन काल में जब पृथ्वी पर वनों की अधिकता थी, उस समय के आदिवासी पृथ्वी को माँ समझते थे, फलतः ये इसे जोतना या कोड़ना पाप समझते थे । फलतः ये एक खास क्षेत्र के वनों को जला देते थे उसी वनहीन भूमि पर खेती करते थे । जब भूमि अनउपजाऊ हो जाती थी तो किसी दूसरी जगह जाकर यही प्रक्रिया को दुहराते थे। इसी प्रकार की जानेवाली खेती को झूम खेती कही जाती थी। तबतक छोड़े गए स्थान में पौधे उग आते थे और वृक्ष लहराने लगते थे ।
प्रश्न 8. फसल चक्र के बारे में लिखिए ।
उत्तर – एक ही खेत में प्रतिवर्ष अदल-बदलकर फसल बोने की प्रक्रिया को फसल चक्र कहते हैं। खाद्यान्न उपजाने के अगले वर्ष दलहन उपजाने से खेत की उपज़ शक्ति घटने नहीं पाती । साधारण देशी खाद के उपयोग से ही भरपूर उपज होती रहती है । इसी प्रकार प्रतिवर्ष या प्रति मौसम में अदल-बदलकर फसल बोने को फसल चक्र कहते हैं। फसल चक्र की प्रक्रिया अपनाने से खेतों की उपज शक्ति बनी रहती है और पर्यावरण भी संतुलित रहता है ।
प्रश्न 9. रोपण या बागानी खेती से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर – रोपण या बागानी खेती को अंग्रेजों ने आरम्भ किया। इसके अंतर्गत वे चाय, कहवा, रबर आदि को रोपकर उससे सालों-साल लाभ उठाते रहे। आम, अमरूद, लीची, केला, सेव, अंगूर आदि के बागान भारत में प्राचीनकाल से ही चलते आए हैं और वह आज भी जारी है। अंग्रेजों ने चाय, कहवा, रबर आदि को संसाधित करने के यंत्र लगाए ताकि बिना खराब हुए बिना वे शीघ्र संसाधित हो जायँ और आय में कमी न होने पाए। भारत में तो नारियल, मसाले आदि प्राचीनकाल से ही उपजाए जाते रहे हैं ।
प्रश्न 10. वर्तमान समय में ग्रामीण अर्थव्यवस्था में परिवर्तन के उपाय बतावें ।
उत्तर – वर्तमान समय में ग्रामीण अर्थव्यवस्था में परिवर्तन लाने के लिए किसानों को आधुनिक तकनीक से परिचित कराया जाय। उनमें जागरूकता उत्पन्न कराई जाय ताकि कृषक अपने कृषि कार्य में परिवर्तन लावें । आधुनिक कृषि के कारण कृषक अधिक आय प्राप्तकर सकते हैं । कृषि कार्य के लिए सरकार कृषि कर्ज उपलब्ध कराए और फसल -बीमा को प्रोत्साहन दिया जाय । सरकार ब्याज की दर कम रखे ।
IV. दीर्घ उत्तरीय प्रश्न :
प्रश्न 1. “भारत एक कृषि प्रधान देश है ।" कैसे ?
उत्तर—प्राचीनकाल से ही कृषि भारत की रीढ़ रही है। भारतीय समाज सदा से एक कृषक समाज रहा है। शुरू से ही कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था की एक महत्वपूर्ण कड़ी रही है। भारत के लोग कृषि से ही अपनी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति कर लेते थे। खाने के लिए तो अन्न उपजाते ही थे, साथ ही दलहन, तेलहन और सब्जी के साथ लहसुनप्याज, हल्दी तथा विभिन्न मसाले उपजा लेता था । मीठा भोजन बनाने के लिए गन्ना उपजाकर उससे गुड़ बना लेते थे । वस्त्र के लिए वे किसी का मुँहताज नहीं थे। कपा उपजाकर सूत कात और उससे वस्त्र बुन लिया जाता था । मिट्टी के कच्ची पटरियों पर लिखा जाना था और उसे पका लिया जाता था। बाद में ताल पत्रों पर लिखने की परम्परा चली जो आज भी कहीं-कहीं मठ-मन्दिरों में सुरक्षित दिख जाते हैं। तात्पर्य कि भारतीय कृषि से भारतीय ग्रामीणों से लेकर शहरियों तक की आवश्यकताएँ पूरी हो जाती थीं ।
आधुनिक काल में जहाँ विश्व में 11% भूमि कृषि योग्य है वहीं भारत में 5% है। भारत की कुल राष्ट्रीय आय में कृषि का योगदान 35% रहा है। लेकिन भाग्य ने पलटा खाया और स्थिति कुछ ऐसी बनी कि भारतीय कृषि अब कुछ अनिश्चित-सी रहने लगी और कृषक अपने उत्पादन के लिए अनिश्चितता की स्थिति में रहने लगे।
कृषि पर जनसंख्या का अत्यधिक बोझ है, आधुनिक कृषि विधि की जानकारी का अभाव है, सिंचाई साधनों की कमी है। स्वतंत्रता प्राप्ति के पहले तक विस्तृत कृषि क्षेत्र और मानवीय श्रम अत्यधिक रहने के बावजूद भारत में उपज बहुत कम थी । खाद्यान्न के लिए आयत पर निर्भर रहना पड़ता था । वास्तव में इसका एक कारण तो यह भी था कि अंग्रेजों ने खाद्य - कृषि के स्थान पर औद्योगिक कृषि को बढ़ावा दिया । वे गन्ना, जूट, कपास, नील, अफीम आदि उद्योगों के लिए कच्चा माल उत्पादित कराने लगे जिससे किसानों को नगद आय होने लगी। इसलिए भी अन्न की कमी होने लगी ।
इस प्रकार भारत के एक कृषि प्रधान देश होते हुए इसे अन्न के लिए आयात पर निर्भर रहने के लिए बाध्य होना पड़ गया ।
प्रश्न 2. "कृषि में वैज्ञानिक दृष्टिकोण कृषि के लिए लाभदायक है।" कैसे ?
उत्तर – यह निश्चित है कि कृषि में वैज्ञानिक दृष्टिकोण कृषकों के लिए काफी लाभदायक होगा। पारंपरिक कृषि अब किसानों के लिए अधिक लाभजनक नहीं रही। कारण कि उसे उद्योगों के लिए कच्चे माल देने पड़ रहे हैं। देश में अबाध गति से बढ़ रही जनसंख्या के लिए खाद्यान्न, दलहन, तेलहन, सब्जी आदि की आपूर्ति करने की जिम्मेदारी भी आ पड़ी है। अतः वैज्ञानिक विधि से ही कृषि उपज बढ़ाई जा सकती है। वैज्ञानिक कृषि में जोताई, कोड़ाई, बुआई आदि से लेकर कटाई और दवनी तक सारे कार्य यंत्रों से सम्पन्न किए जाते हैं। सिंचाई के लिए भी अब मानसून और वर्षा पर आधारित न रहकर मशीनों के सहारे सिंचाई की जाती है। पूरे खेत में नलों का अण्डरग्राउण्ड जाल बिछा दिया जाता है तथा पम्प से भू-जल निकाल कर फौव्वारा सिंचई पद्धाति से खेतों की सिंचाई करते हैं।
विभिन्न पौधों का संकरण कराकर उन्नत किस्म के बीज पैदा करते हैं। इससे उपज बढ़ जाती है। अन्नोत्पादन तो बढ़ा ही हैं, सब्जियों से लेकर फलों तक आकार में बड़े प्राप्त होते हैं और स्वादिष्ट भी उपज बढ़े, इसके लिए रासायनिक उर्वरकों की मदद ली जाती है। उपज मारी न जाए इसके लिए कीटनाशी दवाओं का उपयोग किया जाता है। खरपतवारों को बढ़ने से रोकने के लिए खरपतवारनाशी दवा का भी उपयोग करते हैं ।
इस प्रकार हम देखते हैं कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण से कृषि निश्चित ही लाभदायक है।
प्रश्न 3. बिहार की कृषि को 'मानसून के साथ जुआ' कहा जाता है ।" कैसे ?
उत्तर – बिहार एक ऐसा राज्य है कि अभी तक यहाँ सिंचाई के साधनों का उचित विकास नहीं हुआ है। यहाँ जल की कमी भी नहीं । भौम जल स्तर बहुत निकट है, नदियों की भरमार है। विश्व प्रसिद्ध नदी 'गंगा' बिहार से होकर ही गुजरती है। लेकिन यहाँ उसका लाभ उठाने की अभी तक कोई प्रयास नहीं किया गया है। कुछ नहर खोदे तो गए हैं, लेकिन समय पर उनमें पानी नहीं आता और कुछ नहरें गाद से भर रही हैं, जिनकी सफाई की ओर से सरकार उदासीन है, जबकि खेती के लिए जल नितांत आवश्यक है।
बिहार में मानसूनी वर्षा के पानी से कृषि कार्य होता है। जिस वर्ष मानसून समय पर और पर्याप्त पानी दे देता है, उस वर्ष कृषि अच्छी होती है। जिस वर्ष मानसून नहीं आता और धोखा दे जाता है, उस वर्ष किसान निराश हो जाते हैं। कारण कि फसल नहीं उपज पाती । इसी कारण कहा गया है कि "बिहार की कृषि मानसून के साथ जुआ है।"
यदि सरकार चाहे तो इस कहावत को झुठला सकती है। इसमें कृषकों को भी साथ देना होगा । जो नहर हैं उनकी सफाई वर्ष में एक बार अवश्य करा दी जाय या कर दी जाय । समय पर खेतों में पानी पहुँचा दिया जाय। पानी देने में मुँहदेखी नहीं हो । कुआँ और नलकूपों से भी सिंचाई की व्यवस्था हो ।
प्रश्न 4. "कृषि सामाजिक परिवर्तन का माध्यम हो सकती है ।" कैसे ?
उत्तर- भारत में तो प्राचीनकाल से ही कृषि समाज व्यवस्था में अपना एक विशेष स्थान रखते आई है। लेकिन आधुनिक युवकों में यह प्रवृति बढ़ गई है कि बाहरी नौकरी और शहरों के चमक-दमक उन्हें रिझाने लगे हैं। जो थोड़ा भी पढ़-लिख जाते हैं वे कुर्सी-टेबुल का काम ही खोजने में व्यस्त हो जाते नौकरी खोजते खोजते अपना जीवन बर्बाद कर लेते हैं ।
यदि युवक चाहें तो पढ़-लिखकर कृषि कार्य में लग सकते हैं और उसी को ऐसा रूप दे सकते हैं कि उन्हें कृषि कार्य के बाद टेबुल-कुर्सी भी नसीब हो जाय । युवकों को चाहिए कि पढ़-लिखकर वे कृषि के विकास की बात सोंचे, फसल उपजाने के साथ-साथ पशुपालन भी करें और अनाज के साथ दूध का भी उत्पादन बढ़ाकर वे अपनी आय बढ़ा सकते हैं। यदि हाथ में धन रहेगा तो बिजली व्यवस्था, पक्की सड़कें, पक्की नालियाँ और गलियाँ गाँवों में भी उपलब्ध हो सकती हैं। आवश्यकता है कृषि पर ध्यान देने की । यदि कृषि कार्य वैज्ञानिक ढंग से किये जाएँ, सिंचाई की सुविधा बढ़ा ली जाय । अन्न या फल भंडारण की उचित व्यवस्था हो जाय तो समाज का रूप निश्चित ही बदल जाएगा और तब कोई शहरों की ओर नहीं भागेगा । गाँव के पढ़े-लिखे से लेकर अनपढ़ लोगों को भी काम की कमी नहीं रहेगी। यदि गाँव में ही काम मिलता रहेगा तो निश्चय ही वे अन्यत्र काम की खोज में नहीं जाएँगे। अन्यत्र जाकर काम करने के कारण ही बिहारियों को सर्वत्र निम्न दृष्टि से देखा जाता है, उन्हें मारा-पीटा जाता है । राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के मुख्यमंत्री को भी कहना पड़ता है कि बिहारी लोग दिल्ली के लिए भार हो गए हैं।' बिहारी असम में पिटते हैं, महाराष्ट्र में पिटते हैं। यदि कृषि का उचित व्यवस्था हो तो किसी को कहीं जाने की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी । अतः यह सही है कि "कृषि सामाजिक परिवर्तन का माध्यम हो सकती है । "
प्रश्न 5. कृषि में वैज्ञानिक दृष्टिकोण क्या है ? समझावें ।
उत्तर – कृषि में वैज्ञानिक दृष्टिकोण वह प्रक्रिया है, जिसके सहारे कृषक अधिक उपज प्राप्तकर अधिक आय प्राप्त कर सकते हैं। यह दृष्टिकोण उनके लिए काफी लाभदायक सिद्ध होगा । पारम्परिक कृषि में जहाँ अपने खेतों में उपजे बीजों का ही उपयोग करते रहते हैं, लेकिन वैज्ञानिक दृष्टिकोण से कृषि करनेवाले कृषक नई विधि से तैयार किए गए 'संकर' बीज का उपयोग करने पर उन्हें अधिक उपज प्राप्त होती है। एक खेत में बार-बार एक ही फसल को उपजाते रहने से खेतों की उपज शक्ति क्षीण पड़ जाती है। इससे बचने के लिए फसल चक्रण विधि अपनाने से ऐसी बात नहीं हो पाती । सिंचाई के लिए वर्षा पर निर्भरता भी उत्तम कृषि में बाधक बनती है। इसके लिए वैज्ञानिक ढंग से सिंचाई व्यवस्था करनी पड़ती है। खेतों की जुताई ही नहीं, बल्कि बीजों की बुआई यंत्रों के माध्यम से की जाती है। पारंपरिक खादों का मोह त्यागकर रासायनिक उर्वरकों का उपयोग किया जाता है। निकाई के स्थान पर खर-पातनाशी दवाओं का उपयोग किया जाता है, कीटों द्वारा फसलों का नुकसान नहीं हो, इसके लिए कीटनाशी दवाओं का फसलों पर छिड़काव किया जाता है। तैयार फसल की कटाई भी मशीन द्वारा ही की जाती है तथा दवाई भी उसी माध्यम से की जाती है। अन्न तैयार हो जाने के बाद उनके भंडारण की व्यवस्था भी वैज्ञानिक दृष्टिकोण को अपनाकर किया जाता है ताकि चूहों तथा घून जैसे कीट उनको नुकसान नहीं पहुँचा सकें। फिर ट्रैक्टरों तथा ट्रकों के माध्यम से उन्हें बाजरों तक पहुँचा दिया जाता है।
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